अन्तरजाल पर साहित्य प्रेमियों की विश्राम स्थली [SahityaKunj3inch.gif] मुख्य पृष् 05.03.2012 ग़ज़ल एक कला एक परिचय - दूसरा भाग आर.पी शर्मा प्रस्तुति : देवी नागरानी __________________________________________________________________ [Gazal_Kala_Cover.jpg] "ग़ज़ल-लेखन कला" के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्तुत है उनकी ही लेखनी के अनुसार उनके शब्दों में - पृष्ठ १८-२३ से साभार। [mehrishi.jpg] "ग़ज़ल कहने के लिये हमें कुशल शिल्पी बनना होता है ताकि हम शब्दों को तराश कर उन्हें मूर्त रूप दे सकें, उनकी जड़ता में अर्थपूर्ण प्राणों का संचार कर सकें तथा ग़ज़ल के प्रत्येक शेर की दो पंक्तियों (मिसरों) में अपने भावों, उद्‌गारों, अनुभूतियों आदि के उमड़ते हुए सैलाब को 'मुट्ठी में आकाश, कठौती में गंगा, कूजे में दरिया, बूँद में सागर के समान समेट कर भर सकें। इसके लिये हमें स्वयं को सक्षम तथा लेखनी को सशक्त बनाना होता है। तब जाकर हम में वह सलीका, वह शऊर, वह सलाहियत, वह योग्यता एवं क्षमता उत्पन्न होती है कि हम ऐसे कलात्मक शेर सृजित करने में समर्थ होते हैं जो "लोकोक्ति" बन जाते हैं, और अक्सर मौकों पर हमारी ज़बान पर रवाँ (गतिशील) हो जाते हैं।" जैसेः मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ -दुष्यंत कुमार कहानी मेरी रूदादे-जहाँ मालूम होती है जो सुनता है, उसीकी दास्ताँ मालूम होती है -सीमाब अकबराबादी इस संबंध में, श्री ज्ञानप्रकाश विवेक, ग़ज़ल के कला पक्ष को विशेष महत्व देते हुए कहते हैं : "ग़ज़ल की बुनियादी शर्त उसका शिल्प है। एक अनगढ़ ग़ज़ल एक अनगढ़ पत्थर की तरह होती है। संगतराश जिस प्रकार छेनी ओर हथोड़ी से पत्थर में जीवंतता ला देता है और तराशे गये पत्थर में उसका एहसास, उसकी अनुभूतियाँ और उसकी अभिव्यक्ति छुपी होती है, वो सब सजीव सी लगती हैं। इसी प्रकार ‌क तराशी हुई ग़ज़ल का तराशा हुआ शेर, सिर्फ दो मिसरों का मिलाप नहीं होता, न उक्ति होती है, न सूक्ति, अपितु वह एक आकाश होता है -अनुभूतियों का आकाश! ग़ज़ल का एक-एक शेर कहानी होता है।" हिंदी में ग़ज़ल-दुष्यंत के बाद-एक पड़ताल, आरोह ग़ज़ल अंक से यूँ तराशा है उनको शिल्पी ने जान सी पड़ गई शिलाओं में -देवी सारा आकाश नाप लेता है कितनी ऊँची उड़ान है तेरी -देवी (ये शेर महरिष जी को बहुत पसंद थे) शेर को कहने व समझने के बारे में बकौल हज़त मुन्नवर लख़नवी साहब का शेर प्रस्तुत करते हैं - शेर कहना यूँ तो मोती है मो पिरोने का अमल शेर कहने से भी बहतर है समझना शेर का। इस फ़न के कद्रदान हज़रत अनवर साबरी के लफ्ज़ों में सुनियेः "ग़ज़ल को छोटी छोटी बहरों में ढालना तथा उसमें प्रयुक्त थोड़े से शब्दों में मन की बात कहना और वह भी सहजता से, यह भी एक कमाल की कला है।" ग़ज़ल विधा को कलात्मक बनाने में सुलझी हुई भाषा का बहुत बड़ा हाथ है। जैसा कि पद्मश्री गोपालदास "नीरज" का कहना हैः "उर्दू शायरी की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है भाषा का सही प्रयोग। उर्दू में वाक्यों को तोड़-मरोड़ने बजाय, भाषा को उसके गद्यात्मक अनुशासन के साथ पेश किया जाय तो उसमें रस, अलंकार बरपूत आ जाते हैं" शायर तो कोई शख़्स भी हो सकता है फ़नकार मगर बनना बहुत मुश्किल है....बक़ौल डा॰ अल्लामी(रुबाई की अंतिम दो पंक्तियाँ) अपने नये ग़ज़ल संग्रह चराग़े दिल में देवी नागरानी ग़ज़ल के विषय में क्या कहती हैः "कुछ खुशी की किरणें, कुछ पिघलता दर्द आँख की पोर से बहता हुआ, कुछ शबनमी सी ताज़गी अहसासों में, तो कभी भँवर गुफा की गहराइयों से उठती उस गूँज को सुनने की तड़प मन में जब जाग उठती है तब कला का जन्म होता है। सोच की भाषा बोलने लगती है, चलने लगती है, कभी कभी तो चीखने भी लगती है।यह कविता बस और कुछ नहीं, केवल मन के भाव प्रकट करने का माध्यम है, जिन्हें शब्दों का लिबास पहना कर एक आकृति तैयार करते हैं, वो हमारी सोच की उपज होती है फिर चाहे रुबाई हो या कोई लेख, गीत हो या ग़ज़ल।" और आगे बढ़ते हुए महरिष जी कहते है ग़ज़ल उर्दू के अतिरिक्त हिंदी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, कशमीरी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, सिंधी तथा भारत की अन्य कुछ भाषाओं में लिखी जाती है। ज़रा मुलाइजा फरमा‌एँ कि "प्रोत्साहन" त्रैमासिक के प्रधान संपादक श्री जीवतराम सेतपाल अपने सम्पादकीय में ग़ज़ल के बारे में क्या कहते हैः "सुकुमार जूही की कली की भांति, मोंगरे की मदमाती सुगंध लेकर, गुलाबी अंगड़ाई लेती हुई, पदार्पण करने वाली ग़ज़ल, भारतीय वाङ्‌मय की काव्य विधा के उपवन में रात की रानी बन बैठी। अरबी साहित्य से निस्सृत, फ़ारसी भाषा में समादृत, उर्दू में जवान होकर, अपनी तरुणाई की छटा बिखेरने और हिंदी साहित्य के महासागर में सन्तरण करने आ गई है ग़ज़ल। कम शब्दों में गंभीरता पूर्वक बड़ी से बड़ी बात को भी, नियमों में बाँधकर बड़ी सफलता और सहजता से दोहों की भाँति गहराई से कह देने में समर्थ, गेय, अत्याधिक लयात्मक, काव्य विधा का मख़मली अंग है ग़ज़ल।“ हरियाणा के श्री निशांतकेतु एक जगह लिखते है- "शायरी एक मखमली चादर जैसी होती है, जिसे शाइर अपनी साँसों से बुनता है, जिस्म और रूह के बीच दिल की धड़कनों से सुनता है।" प्रो॰ रामचन्द्र के शब्दों में "जब तक ग़ज़लकार अपने शेरों में सामूहिक सच्चाइयों के व्यक्तिगत भोग को आत्मसात कर, प्रस्तुत नहीं करता, तब तक उसके काफ़िये और रदीफ़ चाहे जितने सुंदर क्यों न हो, उसके शेर उसकी ग़ज़ल का सही अस्तित्व खड़ा नहीं कर सकता। ग़ज़लकार के अनुभव जब पाठकों के भागीदार बनते है तब जाकर ग़ज़ल की जान सामने आती है।" ग़ज़ल के परिचय से वाकिफ़ कराते हुए आगे महरिष जी कहते हैं - "अच्छी ग़ज़ल के प्रत्येक शेर का पहला मिसरा कुछ इस प्रकार कहा जाता है कि श्रोता दूसरे मिसरे को सुनने के लिये उत्कंठित हो जाता है, और उसे सुनते ही चमत्कृत तथा आनन्द विभोर हो उठता है। "ग़ज़ल" के विचार फ़ियों (तुकांत शब्दों) के इरद गिर्द घूमते हैं। काफ़िया शेर का चर्मोत्कर्ष है, जिस पर आते ही और निहितार्थ या व्यंगार्थ को समझते ही श्रोता अथवा पाठक चमत्कृत एवं विमुग्ध हो उठते हैं। वास्तविकता यह है कि कथ्य और शिल्प के सुंदर तालमेल से ही एक सही ग़ज़ल जन्म लेती है। " श्री दीक्षित दनकौरी द्वारा संपादित "ग़जल दुष्यंत के बाद" में लिखे महरिष जी के कुछ अंश है ये। अंत में स्वरचित ग़ज़ल की कुछ पँक्तियाँ प्रस्तुत हैं - फूल खिले, गुंजार हुई है एक ग़ज़ल साकार हुई है झनके है शब्दों के नुपुर अर्थ-भरी झंकार हुई है। मन की कोई अनुभूति अचानक रचना का आधार हुई है बात कभी शबनम सी "महरिष" और कभी अंगार हुई है। (ग़ज़ल लेखन कला से) कितना सत्य है उनके कहे इस शेर में वो अल्फ़ाज़ मुँह बोले ढूँढती है ग़ज़ल ज़िन्दादिल काफिए ढूँढती है। आगे और तीसरा भाग अगले भाग में श्री आर. पी. शर्मा 'महरिष' से किये कुछ प्रश्नोत्तर सामने आयेंगे जिसमें ग़ज़ल क्या, कब, क्यों और कैसे लिखी जाती है उसके बारें में जानकारी होगी। ग़ज़ल क्या, कब, क्यों और कैसे..... __________________________________________________________________ अपनी प्रतिक्रिया लेखक को भेजें [Email_icon.jpg]